ज़िंदा रहने के लिए …

ज़िंदा रहने के लिए …

दहशत की वीरान राहों में
गुम हो रहा है
ख्यालों का सिलसिला

जरूरतों के जंगल मे खोया आदमी
हो रहा है गुमराह

 परेशानी का दबाव ओ तनाव
 जहन को कर रही है
 पेचीदा

  मसाइल के जकड़ में
  उलझ रही है
  लफ्ज़ ओ सिलसिला ए तरतीब

  मगर  जारी है
  रोज़ की जद्दोजहद

   जो जरूरी जरिया भी है
   ज़िन्दगी की

   ज़िंदा  रहने के लिए

   आदमी रहता है मसरूफ
   लगातार…..

   और मसरूफियत ही रखती है
   गैर जरूरी फिक्र से दूर

    साथ ही

    जद्दोजहद  से पैदा तपिस
    करती है हलकान

     और हलकान भी पा लेता है

       इत्मिनान .

जे आर गंभीर 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *