हिंदी आलोचना का उद्भव एवं विकास से गुजरते हुए हमें एक भी हिन्दी दलित आलोचक से भेट ,हिन्दी आलोचना की शुरुआत से लेकर करीब 1960 तक नहीं होता है।यह बात बहुत हद तक शर्मनाक भी लगता है,क्या,कोई दलित उस समय साहित्य में नहीं था या था तो उसे दरकिनार कर दिया गया।हिन्दी साहित्य का इतिहास में भी दलित लेखक,कवि आलोचकों का नाम न के बराबर है।
हिंदी आलोचना से अलग , और आलोचनाएँ हिंदी साहित्य में बहुत तेजी से अपनी पहचान कायम करती है,उसमें हिन्दी दलित आलोचना का नाम आता है।
दलित साहित्य का आधार स्तम्भ अंबेडकर चिंतन तथा दर्शन है।जिसमें समाज उत्थान तथा समानाधिकार की बात पर जोर,जातिवाद का उन्मूलन,नारी शिक्षा,अंतरजातिय विवाह की चर्चा आदि पर बहुत गम्भीर चिंतन एवं बहस है।अंबेडकर द्वारा लिखित ‘कास्ट पन इंडिया -देयर मैकेनिज्म,जेनेसिस एण्ड डेवलपमेंट'(1916) से लेकर ‘बुद्ध एण्ड हिज धम्म'(1956)तक उनके विचार धारा के दर्शन ही दलित साहित्य एवं हिन्दी दलित आलोचना के केन्द्र बिंदु में गरजते-बरसते नज़र आता है।
हिंदी दलित आलोचना पर विचार करने से पूर्व उसके राजनीतिक समीकरण और सत्ताकरण को समझना भी बेहद जरुरी है।कारण साहित्य में विमर्श का आगमन भी सत्ताहरण हेतु ही हुआ।समाज को विखंडीत करके टुकरों में बाट कर राज करने की जो प्रवृत्ति यहाँ बहुत पहले से प्रचलीत था,साहित्य में भी उसका आगमन हुआ।जिसके लिए जिम्मेदार सबसे अधिक लेखक संगठन तथा तथाकथित आलोचक,संपादक है।
राजनीति में अंबेडकर के बाद जगजीवन राम राजनीति के शीर्ष पर रहकर दलितों को सामाजिक और राजनीतिक संघर्ष का एहसास कराया।तथा भारतीय राजनीति में दलित समाज की क्या शक्ति है,इसका परिचय भी दिया।
फिर कांशीराम ने (1974)बामसेफ से जरिए दिल्ली,महाराष्ट्र,मध्य प्रदेश,पंजाब हरियाणा और उत्तर प्रदेश में दलित कर्मचारियों का संगठन को और मजबूत बनाया।फिर 6,दिसम्बर को डीएस 4 की स्थापना की।जिसमें ठाकुर,ब्राह्मण बनिया को ,डीएस4 से बाहर रखा
।डी.एस.4 यानी-दलित समाज शोषित संघर्ष समिति।
कांशीराम ने सामाजिक परिवर्तन के अन्तगर्त जो पाँच लक्ष्य रखे थे-आत्म-सम्मान,स्वतंत्रता,समता,जाति का विनाश और अस्पृश्यता,अन्याय,अत्याचार तथा आंतक का उन्मूलन।तो क्या बहुजन एवं दलित राजनीतिक विचार वाले दल की सरकार ने इस पर कोई ठोस कार्य किया?जबाब आयेगा नहीं,कारण सामंती सोच इनमें भी सत्ता मिलते ही आ गयी।बसपा की गुणगान करते कंवल भारती फूले समाते नज़र आते हैं।पर क्या सामाजिक परिर्वतन हुआ दलितों के जीवन में?इस का जबाब नहीं मिलता।
कंवल भारती अंबेडकरवाद का नाम लेते हुए प्रबल रुप से जातिवादी समाज का पैरोकार बनते नज़र आते हैं।विवेकानंद जैसा समाज सुधार भी इन्हें ब्राह्मणवादी नज़र आता है।
1984 में बहुजन समाज पार्टी की स्थापना हुई।1993 ,बाबरी ढाँचा ध्वंस के बाद,उत्तर प्रदेश में बसपा और सपा गठबंधन को 67 सींटे मिली।यह भारतीय राजनीति के इतिहास में किसी दलित बाहुल्य दल की जीती गयीं सर्वाधिक सींटे थी।इसके बाद से जो दलित चेतना का राजनीतिक परिदृश्य बदला वह सब जानते हैं।
निराला संभवतः हिन्दी का प्रथम आलोचक है जो दलित समुदाय के साथ हो रहे दोहरी आचरण का चित्रण अपनी कहानी,उपन्यास एवं लेखों में करते हैं।लेकिन वे दलित चिंतक के रुप में मान्य नहीं है कारण जातिवाद का सवाल जब साहित्य में,समाज में अहम रूप से हो,तब साहित्य का विकेन्द्रीकरण साफ-साफ दिखाई देगा।
भले ही प्रेमचंद,निराला,भारतेन्दु आदि ने कभी भी जातिवाद को बढ़ावा नहीं दिया,पर आरोप गढ़ना भी कुछ लोगों का कार्य रहा है।
हिन्दी दलित आलोचना का व्यापक एवं प्रचंड रुप डॉ.धर्मवीर के आगमन से होता है।अपनी तर्क एवं सवालों से धर्मवीर जो दलील खड़ा करते हैं प्रेमचंद के कहानी एवं उपन्यास में वर्णित दलित पात्रों पर प्रेमचंद के स्वानुभूति पूर्ण रवैया का,उससे हिन्दी आलोचना एक नया मोड़ लेता है।
वैसे दलित -साहित्य की शुरुआत हिन्दी में आत्मकथा लेखन से होता है। हिन्दी दलित आलोचक यथा-,माताप्रसाद,सूरजपाल,श्रवण कुमार,श्योराज सिंह बेचैन,ओम प्रकाश वाल्मीकि,तुलसी राम,मोहनदास नैमिशराय,जयप्रकाश कर्दम ,कंवलभारतीआदि अनेक नाम है।
जिनमें कुछ आलोचक प्रतिरोध और प्रतिवाद की जगह विवाद एवं समाज को भड़काने के लिए ही हिन्दी के तथाकथित प्रगतिशील आलोचकों की तरह बयानवीर है ,तो कुछ बहुत ही तार्किक एवं सामाजिक भी।
कंवल भारती ने बहुत लिखा है-दलित विमर्श की भूमिका,दलित साहित्य की अवधारणा,दलित साहित्य के आलोचक विमर्श,हिंदी क्षेत्र की दलित राजनीति और साहित्य,राहुल सांस्कृत्यायन और डॉ.अंबेडकर,दलित चिंतन में इस्लाम, आदि।परंतु इनके विचार बहुत हद तक प्रतिशोधी है।ये दलित आलोचना में डॉ.धर्मवीर के पथ पर चलते हुए उलझे हुए नज़र आते हैं।राजा राममोहन राय के बारे में कंवल भारती का विचार देखिए–‘राजा राममोहन राय पर ईसाई और इस्लाम धर्मों का काफी प्रभाव था।इन दोनों धर्मों के मिशनरी धर्मांतरण आन्दोलन चला रहे थे।राजा राममोहन राय हिन्दू समाज में इसलिए सुधार चाहते थे,ताकि इस्लाम और ईसाई धर्मांतरण आन्दोलन हिन्दू धर्म के अस्तितत्व के लिए संकट न बन जाये।इसलिये वास्तविकता यह है कि राय का आन्दोलन हिन्दू धर्म की सुरक्षा का आन्दोलन था,किसी नये राष्ट्र के निर्माण का आन्दोलन नहीं था।'(दलित विमर्श की भूमिका ,पृष्ट-45)
कंवल भारती अपनी आलोचना में बार-बार ब्राह्मणवाद ,सवर्णवादवाद पर गोला दागते नज़र आते हैं,लेकिन यह विचार सभी समुदाय में हैं सामंतवाद के रुप में है,उस पर बोलने से भागते हैं।
हिंदी साहित्य के लेखक एवं आलोचकों का मूल्यांकन कंवल भारती सम्पूर्णता की बजाय खंडीत एवं केवल नाकारात्मक प्रसंगों पर अधिक नज़र दोड़ाते हुए दिखाई पड़ते हैं।
ओमप्रकाश वाल्मीकि की आलोचना ने दलित-आलोचना को नयी दिशा एवं उर्जा ,एवं एक नई चेतना प्रदान करती है।उनकी आलोचना पुस्तक’ मुख्यधारा और दलित-साहित्य,दलित-साहित्य:अनुभव,संघर्ष और यथार्थ आदि दलित आलोचना को एक नयी ऊर्जा एवं दिशा प्रदान करता है।
‘दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र’ व्यावहारिक आलोचना है,जिसमें हम दलित- साहित्य में अंतर्निहित दलित-चेतना को आलोचित एवं विश्लेषीत होते देखते हैं।
‘दलित-साहित्य का सौंदर्यशास्त्र’ में कला,साहित्य के प्रति अपना विचार प्रकट करते हुए सामाजिक व्यवस्था में साहित्य की महत्ता का सही मूल्यांकन करते हुए ओमप्रकाश वाल्मीकि लिखते हैं–“प्रकृति की तरह साहित्य,समाज और चिंतन भी परिवर्तनशील है।ऐसा कोई शाश्वत सिद्धांत नहीं है,जिसके आधार पर सौंदर्य-मूल्य निर्धारित किये जा सकें।इस कार्य में दर्शन और पांडित्यपूर्ण प्रदर्शन की कोई आवश्यकता नहीं है।”(पृष्ठ-58)
यह विचार पारम्परीक ढाँचे में कसकर लिखे जा रहे सौन्दर्यशास्त्र पर करारा प्रहार भी है।भारतीय साहित्य का मूलाधार मानव-जीवन की विविध समस्याएँ,मानवीय प्रेम,स्नेह,भाई-चारा,मानवतावादी समाज,श्रम पर आधारीत समाज का चित्रण आदि है।
अंबेडकर के विचारों एवं आदर्शों को आगे बढ़ाते हुए वाल्मीकि जिस सौंदर्यशास्त्र को रचते हैं,उसमें वर्ण व्यवस्थाओं से उपजी विषमताओं और विसंगतियों को ध्यान में रखते हुए,दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र का मूल्यांकन एवं विश्लेषण भी करते हैं।
ओमप्रकाश वाल्मीकि अपनी आचोलना में कहीं भी प्रतिशोधी नज़र नहीं आते।वे मानवीय धरातल पर,मानवीय दृष्टि से समाज में वंचित श्रेणी पर लिखते हुए दलित-साहित्य को विद्रोह और प्रतिरोध के संघर्ष से निर्मित होना मानते हुए।उसे एक अलग रुप में स्थापित करते हैं।
दलित-साहित्य:अनुभव,संघर्ष और यथार्थ-पुस्तक दलित संवेदना एवं सरोकार की दस्तावेज है।जिसमें दलित आलोचना का नया पाठ देखने को मिलता है।जिसमें ‘मुख्यधारा और दलित-साहित्य’-में जाति मुक्ति की समस्या को केन्द्र में रखकर,ओमप्रकाश वाल्मीकि अंबेडकर दर्शन को विश्लेषीत करते हैं।
ओमप्रकाश वाल्मीकि प्रतिशोधी आलोचक न होकर प्रतिरोधी आलोचक है।यहीं उनका अन्य दलित आलोचकों से बड़ी भिन्नता का प्रमाण है।
दलित-साहित्य:अनुभव संघर्ष और यथार्थ आलोचना ‘पुस्तक में आठ उपविषय या शीर्षक में बांटते हुए दलित आलोचना का नया पाठ प्रस्तुत करते हैं।
【डॉ.रणजीत कुमार सिन्हा】
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