भयावह रोग कोरोना से मैं भी बुरी तरह डरा हुआ हूं। लेकिन भला कर भी क्या सकता हूं। क्या घर से निकले बगैर मेरा काम चल सकता है। क्या मैं बवंडर थमने तक घर पर आराम कर सकता हूं। जैसा समाज के स्रभांत लोग कर रहे हैं। जीविकोपार्जन की कश्मकश के दौरान क्या मैं भीड़भाड़ वाली जगहों पर जाने से बच सकता हूं। क्या मैं हर समय मास्क पहने रह सकता हूं। किसी से यह कहते हुए हाथ मिलाने से इन्कार कर सकता हूं कि भैया कोरोना का डर है… हाथ नहीं मिलाऊंगा… हाथ जोड़ कर नमस्ते करुंगा। जिंदगी की जद्दोजहद में जुटे रहने के दौरान क्या बार – बार साबुन से हाथ धोने का विकल्प मुझे उपलब्ध हो सकता है। अपने दायरे में लोगों से एक मीटर की दूरी बरत सकता हूं। शायद सारे सवालों का जवाब नहीं है। कोरोना वायरस को ले मची आपाधापी से जुड़े घटनाक्रम हम जैसों के लिए परीकथा की तरह है। क्योंकि चैनलों पर सुबह – शाम देख रहा हूं कि कोरोना के डर के चलते स्कूल – कॉलेज , सभा – समारोह, मॉल , अदालत पखवाड़े भर से भी अधिक समय के लिए बंद कर दिए गए हैं। यानि कोरोना के मामले में भी कुदरत की कृपा पहले से सुख – चैन की बंसी बजा रहे लोगों पर ही बरस रही है। तेल से लबालब सिर पर ही और तेल उड़ेला जा रहा है। महीने के पंद्रह दिन आराम करने वालों के लिए और आराम का जुगाड़ किया जा रहा है। दूसरी तरफ जिंदगी की दौड़ में सुबह घर से निकलते ही सड़कों पर बड़ी संख्या में कमजोर तबके के लोगों पर नजर जाती है, जिनके लिए इस महामारी का कोई मतलब नहीं है। हाड़ – तोड़ मेहनत के बगैर उनका पेट भरना मुश्किल है। कोरोना के कहर पर रोशनी डालते समय कोई यह नहीं बताता कि समाज के निर्धनतम लोगों के लिए कोरोना से बचने के क्या उपाय है। उनके लिए सरकार की ओर से क्या घोषणाएं की जा रही है। गांवों में हैंड वॉश से हाथ धोना तो दूर पीने के पानी की भी किल्लत रहती है। हम जैसों के लिए ना तो बार – बार हैंडवॉश से हाथ धोना संभव है और ना सर्दी – बुखार होते ही आराम। चैनलों पर दिखने वाली अस्पतालों की चाक – चौबंद व्यवस्था असल में दिखावटी है। हकीकत में अभी भी अस्पतालों में सामान्य लोगों को पूछने वाला कोई नहीं। कोरोना चाहे जितना कहर बरपा ले। अभी हाल में एक अस्पताल गया, वहां हर कोई मास्क पहने नजर आया। पूछने पर बताया गया कि वहां एक प्रसिद्ध चिकित्सक मरीज देखने आते हैं। उनके चेंबर में बैठने का निर्धारित समय दो घंटे हैं। लेकिन उनके कक्ष में प्रवेश से पहले ही 80 से सौ मरीज चिकित्सालय के आस – पास जमा हो जाते हैं। अब सोचने वाली बात है कि दो घंटे में डॉक्टर साहब भला इतने मरीजों को कैसे देखते होंगे। इस आलम में स्पष्ट है कि कोरोना वायरस सचमुच में दुनिया को गांव तो बना सकता है। समाज का संभ्रांत और ताकतवर तबका इसे इंज्वाय भी कर सकता है। लेकिन इससे गरीबों की स्थिति जस की तस ही रहने वाली है। हां इस खेमे के लोग कोरोना के मुद्दे पर चौक – चौराहों पर हंसी – ठिठोली और तर्क – वितर्क जरूर कर सकते हैं। या फिर इसके विभिन्न पहलुओं पर ज्ञान पेल कर अपने दायरे में भौंकाल भर सकते हैं। जैसे कोरोना और करुणा शब्द में बस सामान्य फर्क है। लेकिन दोनों के अर्थ विरोधाभासी है। उसी तरह गंभीर महामारी के भी समाज के अलग – अलग तबके के लिए भिन्न मायने हैं।
तारकेश कुमार ओझा
लेखक पश्चिम बंगाल के खड़गपुर में रहते हैं और वरिष्ट पत्रकार हैं। संपर्कः 9434453934, 9635221463
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