तारकेश कुमार ओझा , खड़गपुर : क्या गांव , क्या शहर । चुनाव के दूसरे दिन हर तरफ हालात बारात विदा होने के बाद खाली पड़े जनवासे की तरह रही । उम्मीदवार , दावेदार , चुनावी सेनापति व सैनिक से लेकर सारा तामझाम पलक झपकते गायब । कुछ शेष रहा तो बस यादों के अवशेष । इस बार का चुनाव पूरी तरह से खेल कहें या खेला पर केंद्रित रहा । वाकई राजनीतिक रंग में रंगे राजनेताओं के लिए सब कुछ खेल ही तो है । चुनाव लड़ना , पहले विरोधियों पर गंभीर आरोप – प्रत्यारोप लगाना और अंत में प्रतिद्वंद्वी के साथ सौजन्य साक्षात्कार में मुस्कुराते हुए तस्वीरें खिंचवाना ।
खेल तो उनके लिए उस विरोधी दल में शामिल हो जाना भी है जिसे कुछ घंटे पहले तक पानी पी पी कर कोसा था । या उसे पानी पीकर कोसना भी , जिसकी छांव में अब तक उनका पालन – पोषण हुआ । ताकतवर बंदों के लिए सब कुछ खेला या खेल ही है । लेकिन जनता के लिए यह खेला बड़ा झमेला वाला है । क्योंकि उसे पता है कि आगे का रास्ता उनके लिए और कठिन साबित होने वाला है ।
चुनाव के दूसरे दिन गली – नुक्कड़ – चौराहों पर जमा लोग बस इसी बात की चर्चा में व्यस्त रहे कि अब आगे क्या होगा । जवाब बस दो टुक — यह तो 2 मई को ही पता लगेगा । हर चेहरे पर एक ही चिंता और दर्द …. कि एक लोकतंत्र का पर्व चुनाव ही था , जहां उनके दुख – दर्द का विश्लेषण होता था , उम्मीदें बंधती और बंधाई जाती थी । लेकिन समय ने इसे भी मेला , खेला या खेल बना कर रख दिया …।
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