मित्रता के लाभ
तो मेरे पड़ोसी के पुत्र के हिंदी के गृह शिक्षक द्वारा इस विषय पर निबंध लिखने का गृहकार्य दिया गया है और वह इस संबंध में मेरी सहायता चाहता है। मुहल्ले में स्कूल के गृहकार्य के संबंध में संबंधित विषय के गृह शिक्षक से सहायता प्राप्त करने का रिवाज है जबकि अलग-अलग प्रकार के परियोजना कार्य के लिए अलग-अलग लोगों की सहायता लेने का चलन है।
मेरे लिए निबंध लिखना दुरूह कार्य है, उस पर केवल लाभ पर लिखना कैनवस को सीमित से अति सीमित करना है। मुझे लगता था कि मित्र वह है जो मुसीबत में साथ खड़ा हो और हो सके तो मदद करे, लेकिन बहुत से विद्वानों ने मित्र के बारे में और भी बहुत कुछ लिखा है।
तुलसीदास ने ही मित्र के लिए पता नहीं कितना लिखा है, कक्षा सात में हिंदी की पाठयपुस्तक में दोहे भी थे। उसी समय जे न मित्र दुख होंहिं दुखारी पढ़ा था, लेकिन पढ़ा भर ही था, गुन नहीं सका था क्योंकि उस समय तो केवल संदर्भ, व्याख्या और पंक्ति की विशेषताएं बताना ही मिशन होता था, इस विषय में सोचने की कोई आवश्यकता नहीं थी।
मित्रपुत्र के कार्यवश सोचना पड़ा तो मैंने महसूस किया कि पुण्यात्माओं से भरी इस दुनिया में मेरे ‘रज सम दुख’ को ‘मेरु समान ‘ समझने वाले मेरे बहुत मित्र हैं। इनमें मेरे परिचितों की संख्या अधिक है। कुछ मित्रों ने तो हठ करके भी मित्रता की , जैसे हनुमानजी ने भक्त विभीषण के साथ की थी ; जबरदस्ती मित्र बनाया, तुलसीदास ने तो ऐसा ही लिखा है, “सो तुम मोहि दरस हठ दीन्हा”। हनुमानजी ने विभीषण को ऐसे हठपूर्वक मित्र बनाकर रावण के भय से मुक्त करवाया और सोने की लंका का राज्य दिलवाया, जो विभीषण की कल्पना से भी बाहर की चीज थी। उसी प्रकार जब मेरे आवास पर कई बार जबरिया मित्र पधारे और मेरे जीते-जी और धरती से मेरा बोझ समाप्त होने के बाद भी मेरे परिवार के हित के हेतु लांग टर्म मित्रता के लिए दबाव बनाने लगे तो छिपी हुई अलौकिक शक्तियों वाली मेरी छठी इंद्रिय ने धीरे से दिमाग में फुसफुसा दिया कि हो न हो यह हनुमानजी ही हैं, सो इनकी बात मान लेनी चाहिए। एक -एक करके अपने परिवार के सभी सदस्यों के नाम पर बीमा करवा लिया। हर वर्ष इनकी मित्रता कैलेण्डर की सूरत रिन्यू होती है और दीवार पर टंगी-टंगी रोज मित्रता की याद दिलाती है। असुरक्षा बोध से अभयदान मिल चुका है। मित्रता के इतने बड़े लाभ से हमेशा तर -ब -तर महसूस करता हूं।
कुछ दफ्तर के मित्र हैं। उन्हें पता है कि रविवार को हमारे घर चुल्हिया उदास का पालन किया जाता है, मतलब भोजन नहीं बनता और मंगलवार, बृहस्पतिवार और शनिवार को शाकाहार ही पच पाता है, इसलिए वे सोमवार, बुधवार और शुक्रवार को शाम साढ़े सात या आठ बजे पधारते हैं। चाय के साथ कुछ वाय भी हो जाती है और बतियाते- बतियाते भोजन का भी समय हो जाता है, तब उनके भाग्य से जब -जब जो- जो होना होता है तब-तब वो-वो हो जाता है।
दफ्तर के ही एक परिचित जबरन मित्र बनाने पहुंचे। मेरी भाग्यवान ने स्वागतार्थ आंवले का मुरब्बा और नमकीन हाजिर कर दिया। आंवले का मुरब्बा की प्रशंसा की रेल पटरी बदल -बदल कर मल्टीलेवल मार्केटिंग का सदस्य बनाने के स्टेशन पर टर्मिनेट हुई, लेकिन हम दोनों भी परम ढीठ निकले। उसके बाद उनके बार -बार सपत्नीक पधारने और अपने घर आने का निमंत्रण देने के बाद भी हम पोस नहीं माने। बाद में यह मित्रता छीजकर केवल रास्ता -हाट के हलो हाय तक सीमित हो गई, लेकिन उनकी आंखों में “पिया मिलन की आस” वाला भाव अब भी बरकरार है। इस होते- होते रहे गई मित्रता का लाभ यह हुआ कि हम अब कुछ काम करने से परहेज़ करने लगे हैं जिसके अपने लाभ हैं।
मेरे कुछ मित्र समय न कट पाने के मेरे दुख से अतिशय दुखी हो जाते हैं तो साथ -साथ समय काटने के लिए मेरी कुटिया को धन्य करने के लिए पधारते हैं और उस शाम के पल -छिन पत्नी के कोपभाजन बनने वाले बरतनों पर भारी पड़ते हैं। उन पलों में मैं अपने ऊपर पधारे मित्र की विशेष कृपा के पल समझता हूं, क्योंकि अगर वह न पधारते तो उस घड़ी में ग्रहों-नक्षत्रों की चाल के परिणामस्वरूप उत्पन्न पत्नी के कोप का भाजन मुझे बनना पड़ता। मित्र के आगमन से बला बरतनों पर टल जाती है। यह भी अपने तरीके का अलग लाभ है।
मित्रता का मेरे घरेलू जीडीपी और मासिक बजट पर भी प्रभाव पड़ता है, जो शेयर बाजार की तरह कभी नुकसान देह तो कभी फायदेमंद होता है।
मेरी फेसबुक मित्रता सूची में रेलवे के भी कुछ लोग हैं। आरक्षण का रेल टिकट प्रतीक्षा सूची में होने पर उनकी कृपा प्राप्त करता रहता हूं।
टीटीई से मित्रता बड़े काम की समझी जाती है, लेकिन पता नहीं किस कारण मैं अब तक टीटीई की कृपा का पात्र नहीं समझा गया। ईश्वर अगर है तो इतनी कृपा करें कि हमेशा उचित दर्जे का टिकट खरीद सकूं और मेरा आरक्षण कभी प्रतीक्षा न करे।
मेरे शहर के किराना दुकान वाले, सब्जी वाले , दूधवाला, आटोवाले मित्रता तो बखूबी निभाते हैं, मित्र समझते भी हैं और हक का भी दावा करते हैं, किसी भी प्रकार की समस्या हो, अपनी शक्ति भर सहायता करने के लिए प्रस्तुत रहते हैं और हर खुशी के मौके पर खुशी का अपना हिस्सा ले लेते हैं, लेकिन कभी मुझे मित्र नहीं कहते, ग्राहक, गिराक, कस्टमर, कस्टम्मर कहते हैं। इसी प्रकार के अपने कुछ और मित्रों के बारे में ध्यानमग्न हुआ तो पाया कि जिन्हें मैं मित्र समझता हूं उन्होंने कभी मुझे मित्र नहीं कहा। ये लोग यदि मित्र श्रेणी में रहते -रखते तो ” ‘कुछौर’ बात होती”।
मित्रता बाल्य काल से आरंभ होती है और जीवन भर गाहे -बगाहे नये मित्र जुड़ते जाते हैं। कभी -कभार इनमें से कुछ का मित्रता का पंजीयन समाप्त या रद्द हो जाता है, तो कभी -कभी मित्रता की तीव्रता हमारे मुहल्ले के बिजली के वोल्टेज की तरह घटती -बढ़ती रहती है। इसके पीछे अक्सर स्वार्थ का टकराव होता है , जो अनेक रूपों में हो सकता है और उसकी तीव्रता के व्युत्क्रमानुपात में मित्रता में संक्षरण होता है, लेकिन पते की बात यह है कि इसके भी अपने लाभ हैं, जो भोगनेवाला ही जान पाता है। यहां उल्लेखनीय है कि कुछ लाभ सूक्ष्म भी हो सकते हैं, जो सायास ही अनुभव किए जा सकते हैं।
उधार दिया गया धन या दी गई पुस्तक वापस मांगने का भी मित्रता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इसमें दोष उधार देनेवाले का भी होता है, जबकि बदनाम केवल उधार लेने वाला होता है। बच्चा भी समझ सकता है कि उधार लेने वाले के पास नहीं था, इसलिए उसने उधार लिया और उसके पास नहीं है या वह देना नहीं चाहता इसलिए नहीं दे रहा है। जब वापस ही मांगना था तो देनेवाले ने दिया ही क्यों? ऊपर से और पांच लोगों को बताकर किसी की बदनामी करवाना कहां की शराफत है? अब चाहे बात रूपयों की हो या पुस्तकों की, देनेवाला अपनी ओर से ही संविदा भंग करता है । तो इस तरह यह प्रक्रिया दो तरफा ही होती है, लेकिन लोग एकतरफा समझते हैं, और बलि मित्रता की दी जाती है, लेकिन लाभ की बात यह है कि लेनेवाला मांगने के लिए मुंह से विहीन हो जाता है इसलिए देनेवाला इनकार करने के कष्ट से बच जाता है, यदि फिर भी लेनेवाला किसी मुंह से मांग बैठता है तो देनेवाला किसी न किसी बहाने इनकार करके भविष्य के नुकसान से बच जाता है।
सोचता हूं, यह चिरकुट ही मित्रपुत्र को निबंध के नाम पर दे टालूं। आपकी क्या राय है?
आशुतोष सिंह
लेखक रेल के हिंदी विभाग में कार्यरत है
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