गणतंत्र: शर्मनाक उपहास !
जहाँ सदा तिरंगा लहराता था;
बलिदानी कथा सुनाता था।
जिसे देखकर वीरव्रती का ;
खून उबलता जाता था।।
उस पावन प्राचीर पर आकर;
उपद्रवी कुछ झूल गए ।
कहीं दूर तिरंगा फेंक दिया;
निज झंडा फहरा फूल गये।
नंगी तलवार निकलने लगी ;
बिन सोचे समझे चलने लगी।
ट्रेक्टर चले जवान कुचलने को;
अराजकता चहुँओर फलने लगी;
गणतंत्र कलंकित होता रहा;
हुड़दंग बोझ को ढोता रहा ।
क्या वह था ‘हित’कर अन्नदाता ;
जो हिंसक धैर्य को खोता रहा।
इन सब पर F I R करो ;
ढंग से डंडो की बौछार करो।
करली बहुत लल्ला लोरी ;
अब तो जूतों से वार करो।
मनोज कुमार साह, खड़गपुर