एक ग़ज़ल
जज्बात जाने कब के संगसार हो गए
फिर किसलिए वो मेरे तलबगार हो गए
हम ठीक थे जो सहते रहे बेजुबां सितम
मुंह हमने खोल दी तो गुनहगार हो गए
कल तक तो मेरी बात कोई बात नहीं थी
फिर यूं हुआ हम आपके हथियार हो गए
इस गांव मे तो आए थे मेहमान की तरह
बस जी लगा तो पक्के रहनिहार हो गए
मिलते रहे हैं रंजो गम दरवेश दर ब दर
हमने जो छू लिया इन्हें, अशआर हो गए
आशुतोष सिंह
आद्रा, 9934510298