तत्समय उनका मध्यम पुरूष एक दुकानदार था और दुकानदार का उसूल अपना माल बेचना था और वह ग्राहक को बात से खुश करता था और शब्दों तथा बातों की बातों को वह समय की बरबादी समझता था इसलिए उसने बिना बात बढ़ाए उनकी वैसे ही प्रशंसा कर दी जैसे मुशायरे में शेर समझ में आए न आए पर वाह-वाह ऐसी हो कि वाह!
प्रशंसा ने प्रशंसा की चाहत बढ़ाई। ‘उसूल’ का उपयोग किसी और के साथ किया गया। लेकिन इस बार यह हादसा होटल में उस समय हुआ जब दूसरा व्यक्ति रमेशभाई के साथ ही चाय के पहले नाश्ता करने में मसरूफ था। उसे बिल न देने का यह सुनहरा अवसर जान पड़ा। फिर क्या था; उसने प्रशंसा की बौछार कर दी।
रमेशभाई ने अपने मौलिक चिंतन का दम और भी आजमाया। इस बार प्रयोग का सामान बना दसवीं कक्षा का एक विद्यार्थी। चूंकि उसे स्कूल में सर जो समझाते थे वह चाहे समझ में आए या न आए; वह सिर हिलाकर यह विश्वास दिलाने की कला मंे पारंगत था कि वह समझ गया है और प्रभावित है, इसलिए जान छुड़ाने की गरज से उसने अपनी कलाकारी दिखा दी।
अगला शिकार था एक रिक्शावाला। वह एम.ए. था लेकिन नौकरी न मिल पाने के कारण रिक्शा चलाता था। रमेशभाई उसके रिक्शे पर सवार थे। रिक्शा का टायर सड़क से सुख-दुःख बतिया रहा था और रिक्शेवाले के पैर पैडल से, हाथ हैंडल से। यही वक्त था जब रमेशभाई ने थोड़ी-सी भूमिका बांधने के बाद रिक्शावाले पर अपना मौलिक चिंतन उड़ेला। टायर और सड़क, पैर और पैडल, हाथ और हैंडल की बातचीत में व्यवधान पड़ा और रिक्शा अचानक रूक गया। रिक्शावाला खखुआ गया था। बोला -‘‘ अभी के अभी रिक्शा से उतर जाइए।’’ रमेशभाई से चकित होकर पूछा, ‘‘ क्यों, क्या हुआ?’’ आगे की कहानी बस इतनी-सी है कि रमेशभाई को रिक्शा छोड़ ही देना पड़ा। दूसरा रिक्शा लिया लेकिन मन में यह सोच रहे थे कि अनपढ़ लोग ऐसी ऊंची बाते कैसे समझ सकते हैं। लिहाजा दूसरे रिक्शावाले को ज्ञान का दान यह समझकर नहीं दिया कि वह ऐसा ज्ञान का दान प्राप्त करने का पात्र नहीं है। जो लोग पढ़े-लिखे समझदार मिले उन्होंने तो प्रशंसा की ही।
हमारी तरह हमारा समाज भी विकसित नहीं है, इसलिए विकासशील है, इसलिए हमारा परिवेश भी विकासशील है। चूंकि प्रशंसा का यह वायरस भी इसी परिवेश का हिस्सा था इसलिए विकासशील था। लेकिन विकास करने पर आमादा होने की इस मानसिकता के लिए भी कोई उसूल नहीं था, इसलिए यह वायरस अपने परिवेश के अन्य अवयवों के विकासदर की तुलना में कई गुणा तेजी से अब तक विकासशील है।
इस घटना को तीन चार महीने हो चुके हैं। इस बीच ‘उसूल’ के स्थान पर कई दूसरे शब्द आए और पुराने हो गए। रमेशभाई ने एक शब्दकोश भी खरीद लिया है और रोज शब्दकोश पढ़ते है। रोज कोई न कोई दांत तोड़ू या सिर खपाऊ शब्द उन्हें मिल ही जाता है। फिर तलाश शुरू होती है ज्ञान प्राप्त करनेवाले पात्र की।
परसों उन्होंने मुझे चाय पिला ही दी। चाय के पैसे उन्होंने दिए लेकिन जानकारी प्राप्त करने के लिए भेजा मुझे ही चटाना पड़ा। उन्होंने पूछा ,‘‘जिजीविषा’’ का मतलब जीने की इच्छा होता है, लेकिन जानने की इच्छा के लिए एक शब्द क्या होगा? ’’ मैं मूढ़। मुझे पता ही नहीं था। उन्होंने ही बताया, ‘‘ जानने की इच्छा को ‘विजीगिषा’ कहते हैं।
बहरहाल, प्रशंसा की चाहत में उनका प्रयास नए-नए आयाम में रोज नई ऊंचाइयां छू रहा है। इतना तो है ही कि जब भूसी और चोकर तक हमारा उपकार करते हैं तो उनके प्रयास से उपजा कोई न कोई परिणाम समाज के किसी न किसी काम तो आएगा ही। दूसरे, वे कुछ तो कर रहे हैं। बहुत लोग तो बहुत कुछ करने की क्षमता रखते हुए भी कुछ नहीं करते।
आशुतोष सिंह
मो 9934510298